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August
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एक विवाहिता की डायरी
10:48 PM |
Posted by
Shipra Mishra |
Edit Post
हमें एक विवाहिता की डायरी से कुछ पृष्ठ मिले हैं, जो सुधी पाठकों के अवलोकनार्थ सादर यहाँ प्रस्तुत हैं-
आज फिर इनके माता-पिता का पत्र आया है। पिछले दो हफ्तों में दूसरा पत्र है। लिखा है-चिंटू की बहुद याद आ रही है, उससे मिलने, उसे देखने की बहुत इच्छा हो रही है। ये बूढ़े भी जाने कब अपनी इच्छाओं पर काबू पाना सीखेंगे। अरे! बूढ़े हो गये हो, भगवान, पूजा अर्चना में ध्यान लगाओ या श्मशान पहुँचने तक सांसारिकता में ही फँसे रहने की इच्छा है। मुझे तो पत्र शाम को देखने को मिला। वो भी इनके दफ्तर से लौटने के बाद, क्योंकि पत्र उनके दफ्तर के पते पर ही आया था। शाम को दफ्तर से लौटने पर इनका चेहरा देखने लायक था। प्रसन्नता तो जैसे इनके चेहरे से फूटी पड़ रही थी। इनका तो चेहरा देखते ही मेरा माथा ठनक गया था, लगा जरूर कुछ न कुछ गड़बड़ है, वरना ऐसे ही यूँ ही तो ये इतने प्रसन्न नहीं होते। समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे पूछूँ, क्या करूँ? कैसे जानूँ कि आखिर वे आज इतने प्रसन्न क्यों हैं?
मुझे ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पड़ा। इनके हाथ में चाय का कप थमाते ही इन्होंने मेरे हाथ में पत्र थमा दिया, साथ ही उल्लासित स्वर में बोले, पिताजी का पत्र आया है, शायद अगले हफ्ते वे लोग यहाँ आने की योजना बना रहे हैं। देखा, मेरी आशंका कितनी सच निकली।
इनकी (कर्णकटु) बात सुनते ही एक सेकंड को तो मुझे साँप ही सूँघ गया। समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ, क्या प्रतिक्रिया दूँ? कुछ उल्टा कहने पर ये एकदम बमक जाएंगे, कहेंगे - वे लोग आ रहे हैं तो तुम्हें क्या समस्या है? ज्यादा कुछ भी कह सकते हैं अरे माता-पिता बेटे के पास नहीं आएंगे तो कहाँ जाएंगे? या दादा-दादी को पोते की याद नहीं आएगी तो क्या किसी अजनबी को आएगी? बड़ी समस्या है। न उगलते बनता है न निगलते यही सब सोचते हुए चेहरे पर बनावटी मुस्कान लाते हुए मैंने कहा- चलिए अच्छा है आ रहे हैं, लेकिन अभी दीपावली पर ही तो हम उनसे मिल के आये थे?
मेरी बात को न समझते हुए ये बोले (भगवान बचाये ऐसे नासमझ पति से)- दीवाली बीते भी तो अब कितना समय हो चुका है फिर हो सकता है उनका चिंटू से मिलने का, उसे देखने का मन कर रहा हो। आखिर कितनी दूर तो रहते हैं वे यहाँ से ससुराल से 300 कि.मी. दूर बैठे हैं पर यहाँ भी चैन नहीं लेने दे रहे हैं। फिर उनका आगमन हमारे लिये तो अच्छा ही है न। यहाँ रहते हुए भी वहाँ उनकी चिंता लगी रहती है। अब आँखों के सामने रहेंगे तो कम से कम निश्चिंतता तो रहेगी। हुँह, अपनी निश्चिंतता के लिये मुझे भी लपेट रहे हैं।
हुँह, निश्चिंतता रहेगी ये तो ऐसा कह रहे हैं जैसे खुद डॉक्टर हों कि उन्हें कुछ हुआ नहीं और ये सब संभाल लेंगे और फिर यदि कुछ होना ही है तो वे चाहे यहाँ रहें चाहे वहाँ, वो तो होकर ही रहेगा। परन्तु अब इन्हें कौन समझाए? इनसे कुछ कहना तो पत्थर पे सिर पटकने के समान है। मुझे तो शक ही है, कि इन्हें भगवान भी शायद ही कभी कुछ समझा पाए। ऊपर से डर ये कि यदि कभी किसी बात का गलत (सही) अर्थ निकाल लिया, तो फालतू में तनाव हो जायेगा। गुब्बारे के समान मुँह फूल जायेगा (भगवान भी जाने कैसे-कैसे श्रवणकुमारों को पैदा करता है!)।
समस्या यह है कि उनसे कोई समस्या भी तो नहीं कह सकती। बोलेंगे- (अब उन्हें कौन बतलाये कि उनका आगमन ही अपने आप में एक बहुत बड़ी समस्या है) घर में सभी कामों के लिए बाई लगी है। घर छोटा है, यह भी नहीं कह सकती, क्योंकि इससे कहीं छोटे घरों में बड़े-बड़े परिवार बड़े आराम से सालों से रह रहे हैं। अब उन्हें कैसे बताऊँ कि घर नहीं, मेरे दिल के कमरे में उनके लिये जगह नहीं है। मेरी हर समस्या का जवाब तो उनके पास पहले से ही है, तो फिर किस मुँह से कोई नई समस्या बताऊँ? इतने पर भी यदि कहीं कोई समस्या आती भी है तो उसके लिये ये अपने आप को इस बुरी तरह समर्पित कर देंगे कि उस बेचारी को हार मानना ही पड़ेगा। (आत्मत्याग की तो इन्हें पुरानी बीमारी है) भगवान भी जाने कैसे कैसे नमूनों को इस धरती पर उतारता है। माता-पिता के लिये तो इनसे अपनी जान भी देने को कहो, तो उसे तश्तरी में सजाकर सहर्ष पेश करने में भी ये कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाएंगे।
चाय पीकर ये बाहर सब्जी लेने निकल गए। इनके बाहर जाते ही मैंने पत्र को विस्तारपूर्वक ध्यान लगाकर पढ़ा। वही घिसी पिटी ढकोसले वाली बातें लिखी हैं- वह कैसे हैं? बहू को हमारा आशीर्वाद देना। बहू की हमें बहुत चिंता लगी रहती है।
सब ढोंग है, ढकोसले हैं। यदि बहू की भावनाओं की इतनी ही चिंता होती तो यहाँ आने को नहीं लिखते। उन्हें क्या पता कि यहाँ आने को लिखकर उन्होंने अपनी बहू की चिंता कितने गुना बढ़ा दी है। चिंटू को प्यार? ऐसे बता रहे हैं जैसे संसार में ये ही अकेले दादा-दादी बने हों। वर्ना क्या प्यार दूर रहकर भी नहीं हो सकता? नहीं, पास आकर ही प्यार जताना है और ये दो-चार दिन भी क्या दो-चार दिन होंगे? अरे जब एक बार आ ही जाएंगे तो आराम से महीने दो महीने छाती पर मूँग दलेंगे। है न यहाँ एक नौकरानी 24 घंटे उनकी सेवा करने के लिए। एक बार यहाँ आ जाएंगे तो ऐसा मन लगेगा कि वहाँ की याद ही भूल जाएंगे। कभी जाने की बात भी की तो ये हैं ना रोकने के लिए। अभी कुछ दिन और रुककर जाइयेगा या अभी-अभी तो आप लोग आए हैं और अभी से जाने की बात कर रहे हैं। माता-पिता के सामने तो उन्हें हम लोगों का बिल्कुल भी होश नहीं रहता। ऑफिस के अलावा बाकी पूरे समय अपने माता-पिता की सेवा में, उनकी जी हुजूरी में। उनके सामने एयर इंडिया के महाराजा बने रहते हैं।
वैसे मुझे तो समझ में ही नहीं आता, भगवान ने माता-पिता (सास-ससुर), भाई (देवर, जेठ), ननद (बहन) जैसे रिश्ते (व्यर्थ के) बनाए ही क्यों। अरे सीधे-सीधे पति-पत्नी को बना देते तो भला क्या बिगड़ जाता इनका? अब वे तो बना के फुर्सत पा गए और झेलना हमें पड़ रहा है। यदि कभी उन्हें झेलना पड़ता तो पता चलता क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं एक बहू को।
शादी ना हुई एक बला हो गई, सब इस अधिकार से घुसे चले आते हैं जैसे इनका और हमारा न जाने कितना पुराना साथ हो? भाभी ऐसा, भाभी वैसा कहकर फालतू में चिपकते जाते हैं।
और भी कितने तो रिश्ते और कितने तो रिश्तेदार हैं इनके नाना-नानी, मामा-मामी, मौसा-मौसी, दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ-फूफा और भी जाने कितने ढेर सारे रिश्ते बाप रे बाप, इतने सारे लोग कोई कहाँ तक रिश्तेदारी निभाये? लगता है वहाँ से चलने पर (विदाई के वक्त) दादी ने सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते हुए कहा था- बड़ी किस्मत वाली है तू, जो इतना भरा-पूरा घर मिल रहा है आज यदि वो मेरे सामने आ जाएं तो मैं उनसे साफ कह दूँ, ऐसा भरा पूरा परिवार आप को ही न्यौछावर हो।
कहने सुनने को तो बहुत कुछ है लेकिन अब क्या-क्या लिखूँ, कुंडी भी खटक रही है। शायद वे आ गए होंगे। इसलिए अभी तो बस इतना ही।
शिप्रा मिश्रा
आज फिर इनके माता-पिता का पत्र आया है। पिछले दो हफ्तों में दूसरा पत्र है। लिखा है-चिंटू की बहुद याद आ रही है, उससे मिलने, उसे देखने की बहुत इच्छा हो रही है। ये बूढ़े भी जाने कब अपनी इच्छाओं पर काबू पाना सीखेंगे। अरे! बूढ़े हो गये हो, भगवान, पूजा अर्चना में ध्यान लगाओ या श्मशान पहुँचने तक सांसारिकता में ही फँसे रहने की इच्छा है। मुझे तो पत्र शाम को देखने को मिला। वो भी इनके दफ्तर से लौटने के बाद, क्योंकि पत्र उनके दफ्तर के पते पर ही आया था। शाम को दफ्तर से लौटने पर इनका चेहरा देखने लायक था। प्रसन्नता तो जैसे इनके चेहरे से फूटी पड़ रही थी। इनका तो चेहरा देखते ही मेरा माथा ठनक गया था, लगा जरूर कुछ न कुछ गड़बड़ है, वरना ऐसे ही यूँ ही तो ये इतने प्रसन्न नहीं होते। समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे पूछूँ, क्या करूँ? कैसे जानूँ कि आखिर वे आज इतने प्रसन्न क्यों हैं?
मुझे ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पड़ा। इनके हाथ में चाय का कप थमाते ही इन्होंने मेरे हाथ में पत्र थमा दिया, साथ ही उल्लासित स्वर में बोले, पिताजी का पत्र आया है, शायद अगले हफ्ते वे लोग यहाँ आने की योजना बना रहे हैं। देखा, मेरी आशंका कितनी सच निकली।
इनकी (कर्णकटु) बात सुनते ही एक सेकंड को तो मुझे साँप ही सूँघ गया। समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ, क्या प्रतिक्रिया दूँ? कुछ उल्टा कहने पर ये एकदम बमक जाएंगे, कहेंगे - वे लोग आ रहे हैं तो तुम्हें क्या समस्या है? ज्यादा कुछ भी कह सकते हैं अरे माता-पिता बेटे के पास नहीं आएंगे तो कहाँ जाएंगे? या दादा-दादी को पोते की याद नहीं आएगी तो क्या किसी अजनबी को आएगी? बड़ी समस्या है। न उगलते बनता है न निगलते यही सब सोचते हुए चेहरे पर बनावटी मुस्कान लाते हुए मैंने कहा- चलिए अच्छा है आ रहे हैं, लेकिन अभी दीपावली पर ही तो हम उनसे मिल के आये थे?
मेरी बात को न समझते हुए ये बोले (भगवान बचाये ऐसे नासमझ पति से)- दीवाली बीते भी तो अब कितना समय हो चुका है फिर हो सकता है उनका चिंटू से मिलने का, उसे देखने का मन कर रहा हो। आखिर कितनी दूर तो रहते हैं वे यहाँ से ससुराल से 300 कि.मी. दूर बैठे हैं पर यहाँ भी चैन नहीं लेने दे रहे हैं। फिर उनका आगमन हमारे लिये तो अच्छा ही है न। यहाँ रहते हुए भी वहाँ उनकी चिंता लगी रहती है। अब आँखों के सामने रहेंगे तो कम से कम निश्चिंतता तो रहेगी। हुँह, अपनी निश्चिंतता के लिये मुझे भी लपेट रहे हैं।
हुँह, निश्चिंतता रहेगी ये तो ऐसा कह रहे हैं जैसे खुद डॉक्टर हों कि उन्हें कुछ हुआ नहीं और ये सब संभाल लेंगे और फिर यदि कुछ होना ही है तो वे चाहे यहाँ रहें चाहे वहाँ, वो तो होकर ही रहेगा। परन्तु अब इन्हें कौन समझाए? इनसे कुछ कहना तो पत्थर पे सिर पटकने के समान है। मुझे तो शक ही है, कि इन्हें भगवान भी शायद ही कभी कुछ समझा पाए। ऊपर से डर ये कि यदि कभी किसी बात का गलत (सही) अर्थ निकाल लिया, तो फालतू में तनाव हो जायेगा। गुब्बारे के समान मुँह फूल जायेगा (भगवान भी जाने कैसे-कैसे श्रवणकुमारों को पैदा करता है!)।
समस्या यह है कि उनसे कोई समस्या भी तो नहीं कह सकती। बोलेंगे- (अब उन्हें कौन बतलाये कि उनका आगमन ही अपने आप में एक बहुत बड़ी समस्या है) घर में सभी कामों के लिए बाई लगी है। घर छोटा है, यह भी नहीं कह सकती, क्योंकि इससे कहीं छोटे घरों में बड़े-बड़े परिवार बड़े आराम से सालों से रह रहे हैं। अब उन्हें कैसे बताऊँ कि घर नहीं, मेरे दिल के कमरे में उनके लिये जगह नहीं है। मेरी हर समस्या का जवाब तो उनके पास पहले से ही है, तो फिर किस मुँह से कोई नई समस्या बताऊँ? इतने पर भी यदि कहीं कोई समस्या आती भी है तो उसके लिये ये अपने आप को इस बुरी तरह समर्पित कर देंगे कि उस बेचारी को हार मानना ही पड़ेगा। (आत्मत्याग की तो इन्हें पुरानी बीमारी है) भगवान भी जाने कैसे कैसे नमूनों को इस धरती पर उतारता है। माता-पिता के लिये तो इनसे अपनी जान भी देने को कहो, तो उसे तश्तरी में सजाकर सहर्ष पेश करने में भी ये कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाएंगे।
चाय पीकर ये बाहर सब्जी लेने निकल गए। इनके बाहर जाते ही मैंने पत्र को विस्तारपूर्वक ध्यान लगाकर पढ़ा। वही घिसी पिटी ढकोसले वाली बातें लिखी हैं- वह कैसे हैं? बहू को हमारा आशीर्वाद देना। बहू की हमें बहुत चिंता लगी रहती है।
सब ढोंग है, ढकोसले हैं। यदि बहू की भावनाओं की इतनी ही चिंता होती तो यहाँ आने को नहीं लिखते। उन्हें क्या पता कि यहाँ आने को लिखकर उन्होंने अपनी बहू की चिंता कितने गुना बढ़ा दी है। चिंटू को प्यार? ऐसे बता रहे हैं जैसे संसार में ये ही अकेले दादा-दादी बने हों। वर्ना क्या प्यार दूर रहकर भी नहीं हो सकता? नहीं, पास आकर ही प्यार जताना है और ये दो-चार दिन भी क्या दो-चार दिन होंगे? अरे जब एक बार आ ही जाएंगे तो आराम से महीने दो महीने छाती पर मूँग दलेंगे। है न यहाँ एक नौकरानी 24 घंटे उनकी सेवा करने के लिए। एक बार यहाँ आ जाएंगे तो ऐसा मन लगेगा कि वहाँ की याद ही भूल जाएंगे। कभी जाने की बात भी की तो ये हैं ना रोकने के लिए। अभी कुछ दिन और रुककर जाइयेगा या अभी-अभी तो आप लोग आए हैं और अभी से जाने की बात कर रहे हैं। माता-पिता के सामने तो उन्हें हम लोगों का बिल्कुल भी होश नहीं रहता। ऑफिस के अलावा बाकी पूरे समय अपने माता-पिता की सेवा में, उनकी जी हुजूरी में। उनके सामने एयर इंडिया के महाराजा बने रहते हैं।
वैसे मुझे तो समझ में ही नहीं आता, भगवान ने माता-पिता (सास-ससुर), भाई (देवर, जेठ), ननद (बहन) जैसे रिश्ते (व्यर्थ के) बनाए ही क्यों। अरे सीधे-सीधे पति-पत्नी को बना देते तो भला क्या बिगड़ जाता इनका? अब वे तो बना के फुर्सत पा गए और झेलना हमें पड़ रहा है। यदि कभी उन्हें झेलना पड़ता तो पता चलता क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं एक बहू को।
शादी ना हुई एक बला हो गई, सब इस अधिकार से घुसे चले आते हैं जैसे इनका और हमारा न जाने कितना पुराना साथ हो? भाभी ऐसा, भाभी वैसा कहकर फालतू में चिपकते जाते हैं।
और भी कितने तो रिश्ते और कितने तो रिश्तेदार हैं इनके नाना-नानी, मामा-मामी, मौसा-मौसी, दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ-फूफा और भी जाने कितने ढेर सारे रिश्ते बाप रे बाप, इतने सारे लोग कोई कहाँ तक रिश्तेदारी निभाये? लगता है वहाँ से चलने पर (विदाई के वक्त) दादी ने सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते हुए कहा था- बड़ी किस्मत वाली है तू, जो इतना भरा-पूरा घर मिल रहा है आज यदि वो मेरे सामने आ जाएं तो मैं उनसे साफ कह दूँ, ऐसा भरा पूरा परिवार आप को ही न्यौछावर हो।
कहने सुनने को तो बहुत कुछ है लेकिन अब क्या-क्या लिखूँ, कुंडी भी खटक रही है। शायद वे आ गए होंगे। इसलिए अभी तो बस इतना ही।
शिप्रा मिश्रा
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